Mahabharat - एकलव्य का महाभारत के युद्ध में क्या योगदान था?

एकलव्य का नाम आते ही हमारी आँखों के सामने एक ऐसा चित्र उभरता है जो गुरु भक्ति, त्याग और बलिदान का प्रतीक है। वह वनवासी बालक जिसने मिट्टी की मूर्ति को गुरु मानकर धनुर्विद्या में ऐसी निपुणता हासिल की कि खुद द्रोणाचार्य भी चकित हो उठे। लेकिन जब उनके आदर्श के प्रति भक्ति की परीक्षा हुई, तो उन्होंने अपने गुरु के एक आदेश पर अपना अंगूठा समर्पित कर दिया। यह त्याग एकलव्य को इतिहास में अमर बना गया, लेकिन उसके जीवन का यह एक पक्ष था।

बहुत कम लोग जानते हैं कि एकलव्य ने सिर्फ उस दिन अपना अंगूठा ही नहीं खोया था, बल्कि अपनी पहचान भी खो दी थी। उसका कौशल कभी किसी राजा के दरबार में प्रदर्शित नहीं हो सका, उसका नाम कभी उस महायुद्ध के नायकों के साथ नहीं लिया गया। लेकिन महाभारत के गहरे रहस्यों में से एक यह है कि एकलव्य ने Mahabharat के युद्ध में एक गुप्त योद्धा के रूप में अपना योगदान दिया। वह कौरवों की ओर से लड़ा, लेकिन उसका नाम कभी उजागर नहीं किया गया।

जब युद्ध का महासमर चल रहा था, तो एकलव्य की साधना, उसका अभ्यास और उसका धैर्य किसी कोने में छिपे हुए नहीं थे। इतिहासकार मानते हैं कि एकलव्य ने अपने कौशल को फिर से विकसित किया, बिना अंगूठे के भी उसने धनुर्विद्या में अद्वितीय महारत हासिल की। लेकिन उसकी पहचान छिपी रही, जैसे वह स्वयं ही अपनी छाया बन गया हो।

एकलव्य का यह गुप्त योगदान बताता है कि कभी-कभी सबसे महान योद्धा वही होते हैं, जिनकी वीरता को पहचान नहीं मिलती। वह नायक नहीं कहलाया, पर उसकी छाया युद्ध के हर मोड़ पर मंडराती रही। यह गाथा हमें सिखाती है कि सच्चा योद्धा वह होता है जो अपनी पहचान के बिना भी अपने धर्म को निभाता है। एकलव्य का यही अज्ञात योगदान महाभारत के युद्ध को और भी गूढ़ बनाता है, जैसे कोई अधूरा गीत जो कभी पूरी तरह से गाया नहीं गया, पर उसकी गूंज सदा जीवित रहती है।

एकलव्य की कहानी महाभारत के उन अदृश्य अध्यायों में से है, जो बिना कहे ही मन को छू जाते हैं। वह वनवासी बालक, जिसने कभी महलों की आभा नहीं देखी, न ही किसी राजकुल का सम्मान पाया, फिर भी उसके भीतर एक अनमोल प्रकाश था। यह प्रकाश उसकी साधना, उसकी तपस्या और उसकी अडिग निष्ठा का था। उसने गुरु के प्रति जो समर्पण दिखाया, वह अनमोल था, लेकिन उसके बाद का जीवन एक रहस्य की तरह सिमट गया।

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महाभारत के युद्ध के मैदान में उसकी उपस्थिति कोई नहीं जानता था, फिर भी उसकी उपस्थिति हर तीर में, हर युद्ध रणनीति में महसूस की जा सकती थी। उसकी शिक्षा अधूरी रह गई थी, पर उसकी आत्मा में जो शक्ति थी, वह उसे अधूरा नहीं रहने देती। वह अकेला था, पर उसकी साधना ने उसे युगों का योद्धा बना दिया।

कहा जाता है कि जब कुरुक्षेत्र का महासंग्राम छिड़ा, तो एक अनजाना धनुर्धारी, बिना किसी पहचान के, कौरवों के लिए लड़ता रहा। उसकी आँखों में वही आग थी जो उसने सालों पहले द्रोणाचार्य के सामने देखी थी, जब उसने अपना अंगूठा समर्पित किया था। वह आग अब एक ज्वाला बन चुकी थी, एक ऐसी ज्वाला जो उसकी पहचान की परवाह नहीं करती थी।

उसके बाणों की तेज़ी में उसका दर्द छिपा था—वह दर्द जो उसने अपने हाथों से खुद को छीनते देखा था। हर बाण जो वह छोड़ता, वह उसके अंदर की अस्वीकृति और पीड़ा का प्रतीक था। लेकिन किसी ने उसके नाम का उल्लेख नहीं किया, उसकी गाथा के शब्द युद्ध की धूल में खो गए। एकलव्य ने अपने भीतर एक अज्ञात योद्धा को जन्म दिया था—वह योद्धा जो अपने अस्तित्व से परे लड़ता रहा, सिर्फ अपने कर्तव्य और धर्म के लिए।

कुरुक्षेत्र की धरती पर गिरते हुए सेनानियों में कहीं न कहीं एकलव्य का योगदान भी छिपा हुआ था। वह युद्ध सिर्फ हथियारों की लड़ाई नहीं थी, वह आत्माओं का संघर्ष था, और एकलव्य की आत्मा ने उस युद्ध में जो अर्पण किया, वह अमूल्य था।

Mahabharat के अंत में जब विजयी योद्धाओं के नाम गिने गए, तो एकलव्य का नाम कहीं नहीं आया। पर उसकी छाया उन नामों के पीछे कहीं बसी रही, जैसे कोई गीत जो हवा में घुलकर कभी समाप्त नहीं होता। उसकी कहानी हमें यह सिखाती है कि वास्तविक वीरता पहचान से परे होती है। वह अपनी योग्यता के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य के लिए लड़ता रहा।

एकलव्य का यह अज्ञात योगदान एक अदृश्य धरोहर है, जो हमें सिखाता है कि सच्चा योद्धा वही है जो बिना किसी प्रशंसा के भी अपने धर्म का पालन करता है। उसका त्याग और उसका संघर्ष किसी महाकाव्य से कम नहीं, वह एक मौन योद्धा था जिसने युद्ध के हर चरण में अपनी चुप्पी से अपने साहस को परिभाषित किया।

किसी ने ठीक ही कहा है, "कुछ कहानियाँ इतिहास के पन्नों पर नहीं, बल्कि दिलों के भीतर लिखी जाती हैं।" और एकलव्य की कहानी भी उन्हीं अनकहे पन्नों में अमर हो चुकी है।

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